किडनी फेलियर मरीज की सच्ची कहानी
एक बहुत ही पढ़ा लिखा मरीज डॉ. विजय राघवन के क्लिनिक में 2 वर्ष पहले आया था. वह कई वर्षों से स्वास्थ्य विभाग में कार्यरत था और उसे गंभीर बीमारियों की अच्छी जानकारी थी. उसे किडनी फेलियर की बिमारी थी और उसने भारत के कई नेफ्रोलोगिस्ट से सलाह भी लिया था. जब वह डॉक्टर के पास आया था उस समय उसका क्रिएटिनिन 5 था. उसे उस चिकित्सक ने जो एलोपैथिक चिकित्सक होने के बावजूद भी नेचुरोपैथी और आयुर्वेद पर आधारित उपचार दिया. उसे सभी चीज कच्चा खाने की सलाह दी गयी कुछ आयुर्वेदिक दवा और मानसिक एक्सरसाइज सिखाया गया और फिर 2 महीने बाद पुनः संपर्क करने को कहा गया.
मरीज हरेक 2 महीने पर डॉक्टर के क्लिनिक पर आता और संतुष्ट था. उसका क्रिएटिनिन भी नियंत्रित रहता था. डॉ. राघवन के सलाह के अनुसार उसने सभी एलोपैथिक दवा भी छोड़ दी थी अब वह उच्च रक्तचाप की दवा नहीं लेता था फिर भी उसका रक्तचाप नियत्रित नहीं रहता था. उसे इसकी चिंता सता रही थी. वह जब भी क्लिनिक पर आता था वह सिर्फ उच्च रक्तचाप नियंत्रण की बात करता. किडनी सम्बंधित कोई भी बिमारी जैसे शरीर का फूलना अथवा उलटी आना अथवा कम पिशाब होने की शिकायत नहीं रह गयी थी.
डॉ. राघवन ने उसे हरदम समझाया था कि उच्च रक्तचाप कोई बिमारी नहीं है यह तो किडनी फेलियर की वजह से है. उसका शरीर किडनी में ज्यादा रक्त पहुंचाने के लिए रक्तचाप बढ़ा रहा है और यह शारीरिक बचाव प्रक्रिया है इत्यादि कह कर कभी भी उच्च संस्थान में जाने अथवा रक्तचाप की दवा लेने की सलाह नहीं दिया और हमेशा से वही डाइट चार्ट और नेचुरोपैथी, आयुर्वेद की दवा देते रहे.
उच्च रक्तचाप की दवा से कभी भी रक्तचाप नियंत्रित नहीं होता. रक्तचाप का बढ़ना एक बचाव प्रक्रिया है. अगर आपके शरीर में कोई गंभीर बिमारी है तो आपका शरीर उस अंग में ज्यादा रक्त पहुंचाना चाहता है जिससे उस अंग को ज्यादा पोषक तत्व मिल सके और वह अंग ठीक हो जाए. इसलिए जब आप रक्तचाप की दवा लेते हैं तो आपका शरीर उससे रेजिस्टेंस develop कर लेता है. लेकिन जब आप एक से ज्यादा रक्तचाप की दवा लेते हैं तो आपका शरीर कई दवाईयों से एक साथ रेजिस्टेंस नहीं बना पाता और रक्तचाप नियंत्रित हो जाता है. और आपका अंग बहुत तेजी से खराब होने लग जाता है और फिर उस व्यक्ति के जिन्दा रहने कि संभावना खत्म हो जाती है. इसके बाद जो रक्तचाप बढ़ता है उसे नियंत्रित नहीं किया जा सकता और व्यक्ति का कोई न कोई अंग फेल हो जाता है. आप देखते होंगे कि किडनी, हृदयरोग, आर्थराइटिस, मानसिक कारणों से रक्तचाप बढ़ता है. अगर रक्तचाप बढ़ने की वजह आर्थराइटिस है तो मृत्यु नहीं होगी परन्तु अगर रक्तचाप बढ़ने की वजह हृदयरोग अथवा कोरोनरी आर्टरी ब्लॉकेज है तो फिर आपकी जिंदगी खतरे में है. वैसे में आप देखते होंगे बहुत से लोग रक्तचाप की दवा वर्षों से खा रहे हैं और जिन्दा हैं उसकी वजह है कि उसका शरीर उन दवाओं से रेजिस्टेंस विकसित कर लिया है. परन्तु आप देखते होंगे कि अगर रक्तचाप की दवा हृदयघात के दौरान दिया जाए तो प्रायः मरीज की मृत्यु ही हो जाती है.
आदमी के बिमारी का 60% वजह मानसिक होता है और वह मरीज दिनरात अपने उच्च रक्तचाप के लिए चिंतित रहने लगा. कई चिकित्सकों से जान पहचान होने की वजह से वह कई से सलाह भी ले लेता था और डॉ. राघवन से भी फ़ोन पर उसकी बात करता था.
उसका मन यह बात को स्वीकार्य नहीं कर सकता था कि उसके कई चिकित्सक गलत हों और अकेला डॉ राघवन सही. आपका व्यवहार आपके ब्रेन वाशिंग पर निर्भर करता है इसलिए जिस बात को आप बार बार सुनते हो अथवा देखते हो उसी की तरह आपका आचरण हो जाता है. आपकी वास्तविकता इसी से बनती है. बार बार रिपीट हो रही चीजों के अनुसार ही आपका अंतर्मन बिलीफ सिस्टम बनाता है और अगर इसके बिपरीत बात आप सुनते हैं तो आपको जिंदगी का भय होने लग जाता है. मानव शरीर के इसी गुण के अनुसार ही व्यापार विकसित किया जाता है और व्यापारिकता के इस युग में अब वास्तविकता सिर्फ उद्योग ही निर्धारित करते हैं.
उसके करीबी और सहयोगियों ने उसे कॉर्पोरेट हॉस्पिटल दिल्ली भेजा
सही बात है किडनी के विशेषज्ञ के पास सही सलाह मिलने की उम्मीद में वह कॉर्पोरेट हॉस्पिटल गया. उसके पेशाब से प्रोटीन जाता था तो चिकित्सक ने उसे ज्यादा प्रोटीन खाने कि सलाह दी. आहार विशेषज्ञ से सलाह लेकर वह पनीर, अंडा, पौल्ट्री मुर्गा, रिफाइंड तेल, रोटी इत्यादि खाने लगा. चिकित्सक ने उसे 3 उच्च रक्तचाप की दी. और उसे सच्चाई की जानकारी दी कि किडनी फेलियर ठीक नहीं होता.
एक सप्ताह बाद उसे उलटी आने लगी फिर उसे डायलिसिस की सलाह दी गयी. उसे सप्ताह में 2 बार डायलिसिस करानी पड़ती थी. फिर उसे नीम-हकीमों की विस्तृत जानकारी दी गयी और अपने करीबी को लेकर आने को कहा जिससे किडनी लेकर उसे ट्रांसप्लांट कराना था.
ट्रांसप्लांट का नाम सुनते ही उसके करीबियों ने उसका साथ छोड़ दिया
डायलिसिस तो हो ही रहा था परन्तु बेहतर स्वस्थ के लिए उसे ट्रांसप्लांट की सलाह भी दी जा रही थी. किडनी किसी स्वस्थ व्यक्ति से लेनी थी. जांच से पता चलता किसका किडनी फिट करेगा. ज्यादातर रिश्तेदारों और करीबियों ने मैदान छोड़ दिया. किसी ने जांच तक कराने की जरूरत नहीं समझी.
उस नामी सर्जन ने डॉ. राघवन से फ़ोन पर बात की
मरीज को अब भी लग रहा था कि वह गलत उपचार में है और उसने अपने रिश्तेदार चिकित्सक को डॉ राघवन से सलाह लेने को कहा. सर्जन चिकित्सक काफी प्रतिभाशाली व्यक्ति था. उसने बहुत मेहनत और ईमानदारी से चिकित्सा विज्ञान की पढाई की थी. फ़ोन पर बात करते हुए सर्जन चिकित्सक ने भला बुरा कहा. क्योंकि सर्जन काफी सीनियर हैं इसलिए डॉ. राघवन उसके क्लिनिक पर उससे मिलने गये. वहां पर और भी चिकित्सक बैठे थे और इसी मसले पर बात कर रहे थे.
जब कोई इंसान कोई बड़ी मुशीबत में हो तो वह सिर्फ और सिर्फ अपने अंतर्मन से काम करता है. वह उस समय विवेक से फैसला लेने में पूर्णतः असमर्थ होता है. सलाहकार लोग भी सिर्फ अपने अनुभवों के अनुसार ही बात किया करते हैं कोई भी व्यक्ति विवेक से फैसला नहीं करता.
तीन चार चिकित्सक एक साथ डॉ राघवन पर बरस पड़े.
डॉ. विजय राघवन ने उनको समझाया, हरेक चिकित्सक उपचार पूरे मन से करता है बाकी ईश्वर की मर्जी होती है इसलिए मैं कभी भी डायलिसिस अथवा ट्रांसप्लांट की सलाह नहीं देता. आपलोग भी किडनी फेलियर के मरीज को देखते हैं आप खुद भी फैसला ले सकते हैं.
क्या तुम बिना ट्रांसप्लांट के मरीज को बचा लोगे. क्या तुम किताब से ऊपर हो. क्या विज्ञान की किताब झूठी है. कई तरह से तर्क एक साथ दिए जा रहे थे. अगर तुम इतने ही होशियार हो तो पटना या दिल्ली में प्रैक्टिस क्यों नहीं करते हो.
डॉ. विजय राघवन ने विनम्रता से कहा सर मैंने ना तो मरीज को दिल्ली भेजा ना ही मैं उसका उपचार कर रहा हूँ. आपलोग मरीज के ज्यादा शुभचिंतक हैं और विज्ञान के हिसाब से बात बोल रहे हैं. हरेक चिकित्सक उपचार करता है, मैं भी उपचार करता हूँ. यह बात अलग है कि एलोपैथिक चिकित्सक होते हुए भी मैंने एलॉपथी छोड़ दिया है और नेचुरोपैथी और आयुर्वेद और स्टेम सेल पर आधारित चिकित्सा करता हूँ.
मरीज की भलाई के लिए ही आपने उसे दिल्ली के सबसे अच्छे अस्पताल भेजा है आगे ईश्वर की मर्जी. ऐसा कहकर डॉ. राघवन वहां से चले गये.
उसे उसके भाई ने किडनी दिया
उसका भाई काफी स्वस्थ दिखता था और वही तैयाद हुआ किडनी दान करने के लिए. अबतक उस परिवार का सबकुछ बिक चुका था. उसके भाई की पत्नी और परिवार के लोग काफी नाखुश थे और अन्दर ही अन्दर घुटन मह्शूश कर रहे थे. पूर्णिया के सर्जन चिकित्सक भी ट्रांसप्लांट के वक्त दिल्ली में ही थे. प्रत्यारोपण ठीक ढंग से हुआ. सब कुछ ठीक ढंग से होने के बाद पूरा परिवार अपने घर आ गये. वहां अब एक नहीं दो मरीज थे.
जिसने किडनी दान की थी, सर्वप्रथम मृत्यु उसी कि हुई.
किडनी दान करने के बाद वह काफी बीमार रहने लगा. उसे फिर उसी कॉर्पोरेट अस्पताल ले जाया गया परन्तु उसकी जान नहीं बचाई जा सकी. चिकित्सक नहीं जान पाए थे कि उसकी दूसरी किडनी पहले से ही खराब थी.
जिसे किडनी दान किया गया था वह भी 6 महीने के भीतर ही स्वर्ग सिधार गये
दोनों भाईयों का ब्लड ग्रुप सामान नहीं था परन्तु लाचारी में किडनी ट्रांसप्लांट किया गया था. किडनी रिजेक्ट हो गया और उस व्यक्ति को डायलिसिस पर रखना परा. परन्तु ट्रांसप्लांट की हुई किडनी में इन्फेक्शन हो गया और उस व्यक्ति की मृत्यु हो गयी.
ट्रांसप्लांट के बाद जो दवा दी जाती है उसी से ज्यादातर लोग मर जाते हैं
ट्रांसप्लांट के बाद जो दवाई दी जाती है उससे मरीज की रोग प्रतिरोधक क्षमता ख़त्म हो जाती है और वह इन्फेक्शन का शिकार हो जाता है. जो लोग इन्फेक्शन से बच जाते हैं उनकी उन दवाओं से और पहले की बिमारी से पुनः 1 से 2 वर्ष में किडनी फेलियर और ट्रांसप्लांट कराना पड़ता है अन्यथा उसकी जिंदगी नहीं बचाई जा सकती.
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