चिकित्सा विज्ञान में अनुसंधानों की वास्तविकता
आपने सुना है और चिकित्सकों को अच्छी तरह से मालूम और पूर्ण विश्वास है कि एलोपैथिक चिकित्सा में अनुसंधानों के हिसाब से विज्ञान पर आधारित बातें किताबों में लिखी गयी हैं. जो किताब विदेशों में छपकर आती है वह विज्ञान की बातें हैं और उसको बार-बार पढ़कर, पूर्णतः उसी के हिसाब से उपचार करके वह मानवता का भला कर रहे हैं.
तो फिर क्या वजह है कि पिछले 50 वर्षों से ज्यादातर बिमारी लाइलाज हैं. बहुत से अनुसंधानों के मुताबिक अस्पतालों में किसी की जिंदगी नहीं बचती. जिंदगी उसी की बच पाती है जिसे कोई गंभीर बिमारी न हो. अनुसंधान यह भी बताते हैं कि बहुत से मरीज जो ठीक होने लायक होते हैं वह भी अस्पतालों में जाकर मर रहे हैं.
अनुसंधान क्या होता है और इसे कैसे किया जाता है.
कोई भी अनुसंधान करने का मूल मकसद किसी समस्या का समाधान होता है. इसमें सबसे पहले यह जाना जाता है कि समस्या क्या है और इसपर आजतक क्या काम हुए हैं . मसलन अगर हम डायबिटीज की बात करते हैं तो इसमें अनुसंधान करने वाले सर्वप्रथम यह जानने की कोशिश करते हैं कि एलॉपथी, नेचुरोपैथी, आयुर्वेद अथवा अन्य चिकित्सा विज्ञान में अबतक क्या क्या खोज किये गये हैं और इसमें क्या क्या गलती रह गयी है. इन सभी चीजों के विश्लेषण के बाद वैज्ञानिक आगे की रणनीति बनाते हैं. इस तरह अनुसंधानों का सबसे प्रमुख कदम पिछले अनुसंधानों का वैज्ञानिक विश्लेषण होता है.
इसके बाद वैज्ञानिक इस बात का पता लगाते हैं कि वह बिमारी क्यों हो रही है और उसके क्या प्रमाण हैं. मसलन डायबिटीज अगर इन्सुलिन की कमी से होती है तो इसे कैसे साबित किया जाए. इसके बाद वैज्ञानिक यह जानने की कोशिश करते हैं कि उनकी यह थ्योरी गलत होने की क्या संभावना है. मसलन क्या डायबिटीज किसी दूसरे उपचार से ठीक हो सकती है. इसके लिए वैज्ञानिक अथवा अनुसंधान केंद्र पूरे विश्व में इस बिमारी में हो रहे अनुसंधानों और विचारों का विश्लेषण करते हैं.
अलग अलग अनुसंधानों और विचारों के विश्लेषण से लोग यह जान पाते हैं कि कहीं कोई गलती अथवा किसी व्यक्ति विशेष के प्रभाव से तो गलत निर्णय नहीं लिया जा रहा है. ऐसा करके सर्वप्रथम वैज्ञानिक बिमारी का कारण स्थापित करते हैं.
जब बिमारी का कारण ज्ञात हो जाता है तो फिर उपचार विकसित किया जाता है जो ज्यादा जटिल काम नहीं होता. उपचार विकसित करने के बाद यह देखा जाता है कि वह कारगर है अथवा नहीं. ऐसा करके वैज्ञानिक पुनः यह जानने की कोशिश करते हैं कि कहीं बिमारी का कारण सही ढंग से स्थापित हुआ है अथवा नहीं.
किसी बिमारी का कारण स्थापित करना ही अनुसंधानों का मुख्य काम होता है.
अनुसंधानों में हो रहे खर्च की जानकारी
विकिपीडिया क्या कहता है
अमेरिकन इन्वेस्टमेंट की जानकारी
नेशनल इंस्टिट्यूट जो अमेरिका की संस्था है वह क्या कहते हैं
फ्लोरिडा यूनिवर्सिटी की जानकारी
भारत में चिकित्सा अनुसंधानों पर खर्च का व्योरा
ब्रिटेन में चिकित्सा अनुसंधानों में खर्च का व्योरा
आप ऊपर दिए गये लिंक को क्लिक कर खुद जाने कैसे अरबों डॉलर/ खरबों रूपये इन अनुसंधानों में खर्च हो रहे हैं और पिछले 100 वर्षों से चिकित्सा में कोई प्रगति नहीं हुई है.
सिर्फ अमेरिका में प्रति वर्ष 350 बिलियन डॉलर मसलन 23 लाख करोड़ रूपये खर्च हो रहे हैं. यह डाटा सिर्फ अमेरिकन सरकार की जानकारी है . इससे कहीं ज्यादा बिभिन्न कंपनियों का खर्चा है जो वह कंपनी सरकार से टैक्स में छूट के लिए लेती है.
अगर अनुसंधान केन्द्रों पर काम करने वालों की औसत सैलरी एक लाख प्रति माह हो तो इतने पैसे से 2 करोड़ लोगों को नौकरी मिल सकती है. आखिर कहाँ हैं ऐसे अनुसंधान केंद्र. अमेरिका में डॉक्टर, नर्स, चपरासी सब मिलाकर स्वास्थ्य में कुल 1.24 करोड़ लोग कार्यरत हैं. सबूत देखने के लिए क्लिक करें मसलन जितने लोग स्वास्थ्य विभाग में काम करते हैं उससे ज्यादा लोग अनुसंधान में लगे हैं. आप किसी भी अनुसंधान केंद्र जाएँ उसमें 100 से ज्यादा लोग नहीं मिलेंगे. अनुसंधान करने के लिए इतने लोगों की जरूरत नहीं होती. यह पूर्णतःअसंभव है कि इतना पैसा अनुसंधानों में खर्च होता हो.
आखिर इतना पैसा किस काम में खर्च हो रहा है, कहाँ हैं वह वैज्ञानिक जिनको यह सब खर्च करने के लिए मिल रहा है और क्या है अनुसंधानों की वास्तविकता. खासकर ऐसे वक्त में जब डॉ. विजय राघवन जैसा साधारण इंसान यह दावा कर रहा हो कि डायबिटीज, कैंसर, किडनी फेलियर, आर्थराइटिस, हृदयरोग इत्यादि ठीक हो सकता है. आखिर इन अनुसंधान केन्द्रों और सरकारों को डॉ. विजय राघवन की सच्चाई जानने में कितना खर्च आ सकता है. आखिर सरकारें और संस्थाएं इसका जांच क्यों नहीं करना चाहती. खासकर वैसे वक्त में जब गण्य मान्य व्यक्ति भी डायबिटीज में किडनी फेलियर और हृदयाघात का शिकार हो रहे हैं.
अनुसंधान का पैसा वास्तव में कहाँ खर्च हो रहा है.
अनुसंधान के नाम पर हो रहे खर्चों में ज्यादातर पैसा अधिकारीयों और मिनिस्टरों को घूस में दिया जाता है. बाकी का पैसा ब्रांडिंग में खर्च होता है. मसलन चिकित्सकों और आम लोगों को भरोसा दिया जाता है कि उसकी बिमारी कभी ठीक नहीं हो सकती. मिनिस्टरों और धर्म गुरुओं को खूब पैसा दिया जाता है और लोगों को भावनात्मक रूप से और बहुत ही चालाकी से बताया जाता है कि हमने खरबों खर्च करके अनुसंधान किया है और हम अनुसंधान में लगे हैं बीमारियों को ख़त्म करने के लिए. इस काम के लिए टेलीविज़न, रेडियो और अखबारों में समाचार के रूप में बताया जाता है, इस तरह के समाचार विज्ञापनों से ज्यादा खर्चीला होता है और आम लोगों को समाचार पर भरोसा भी हो जाता है. ब्रांडिंग और झूठी समाचारों के माध्यम से बीमारियों की गलत वजह को प्रसारित किया जाता है. लोगों को जुमलों और मुहावरों के माध्यम से गलत चीजें याद कराई जाती है जिससे वह सही चीजों को नहीं जान सके.
अनुसंधान का पैसा नेचुरोपैथी, आयुर्वेद इत्यादि को नीचा दिखाने के लिए भी खर्च होता है. सरकारों के मंत्रियों और सचिवों को घूस देकर अथवा बेवकूफ बना कर ऐसे क़ानून बनाये जाते हैं जिससे दूसरे पद्धति के चिकित्सक लगभग नगण्य हो गये. अब आम लोग सिर्फ और सिर्फ एलॉपथी इलाज ले सकते है और उनको अपनी जीवन की भीख मांगने के सिवाय और कोई दूसरा रास्ता नहीं है.
बीमारियों को लाइलाज बनाने से क्या फ़ायदा है व्यापारियों को.
अगर आपकी बिमारी ठीक हो जाती है अथवा आप स्वस्थ रहते हैं तो क्या अस्पतालों को मुफ्त में पैसा देंगे. कोई भी इंसान सिर्फ और सिर्फ मजबूरी में ही अस्पताल जाता है. ऐसा नहीं है कि बीमारियाँ लाइलाज हैं. दूसरी पद्धति जैसे नेचुरोपैथी, आयुर्वेद इत्यादि में सभी बीमारियाँ ठीक हो जाती हैं परन्तु बहुत ही चालाकी से उन चिकित्सकों की संख्या नगण्य कर दी गयी हैं और इसमें सरकार का इस्तेमाल किया गया है. अब इन पद्धतियों में क्वालिफाइड चिकित्सक बहुत ही कम हैं. अब लोगों को मजबूरी बस जवानी गवा कर एक अधार्मिक मौत को अपनाना पड़ता है.
अगर डायबिटीज, उच्च रक्तचाप इत्यादि ठीक होने लगे तो ज्यादातर चिकित्सा उद्योग के लोग बेरोजगार हो जायेंगे. व्यापार और दवा कंपनियों को बहुत घाटा होगा और ज्यादातर कंपनियां बंद हो जायेंगी. अरबों और खरबों खर्च करके इन लोगों ने गाँव गाँव तक दलालों की टीम बनायी है, जो आपको लगातार विश्वास दिलाते हैं कि आपकी बिमारी कभी ठीक नहीं होगी और हमने खरबों खर्च करके अनुसंधान किया है.
व्यापारियों का पैसा नेचुरोपैथी और आयुर्वेद को नीचा दिखाने और अवैज्ञानिक साबित करने में खर्च हो रहा है. आप देखते होंगे कि quake को कितना प्रचारित किया जाता है. यह सब करने का मकसद सिर्फ और सिर्फ ब्रांडिंग होता है मसलन एलॉपथी एक बहुत ही वैज्ञानिक विधा है और बाकी सब अवैज्ञानिक हैं.
वैज्ञानिकों के अनुसंधान को दवा कंपनियां तोड़ मरोड़ कर दुनिया के सामने पेश करती है. व्यापार को चलाने के लिए मेडिकल साइंस की किताबों को लिखा जाता है. किताबों में वास्तविकता को छुपा कर रखा जाता है और गलत चीजों को बार बार रिपीट कर चिकित्सकों का ब्रेनवाश किया जाता है.
विडियो देखें डॉ. थोमुस सिफ़्रिएद कैंसर के उपचार में हो रहे धोखाघरी के बारे में क्या विचार व्यक्त कर रहे हैं. वह कहते हैं कैंसर का वर्तमान उपचार पूर्णतः गलत है, सिर्फ व्यापार को फ़ायदा पहुंचाने के उद्देश्य के लाखों लोगों को मौत के घाट उतरा जा रहा है. वैज्ञानिक कैंसर के उपचार को पूर्णतः धोखाघरी बता रहे हैं